शतरंज की दुनिया में कोनेरू हम्पी एक जाना-पहचाना नाम है। उन्होंने कम उम्र में ही ग्रैंडमास्टर बनकर इतिहास रचा और कई बार खुद को विश्व स्तर पर साबित किया। हाल ही में, उन्होंने अपना दूसरा विश्व रैपिड शतरंज खिताब जीतकर एक बार फिर यह दर्शा दिया कि वह क्यों इस खेल की शीर्ष खिलाड़ियों में से एक हैं। लेकिन हम्पी का सफर केवल 64 खानों वाले बोर्ड तक ही सीमित नहीं है। यह कहानी है एक ऐसी चैंपियन की, जो मातृत्व की जिम्मेदारियों और विश्व स्तरीय खेल की चुनौतियों के बीच अद्भुत संतुलन बनाती है।
“कभी-कभी टूर्नामेंट के दौरान मैं अपनी बेटी के बारे में सोचती हूँ, लेकिन ध्यान केंद्रित रखना बहुत ज़रूरी है। कभी-कभी मैं उससे बात भी नहीं करती ताकि भावनात्मक रूप से कमज़ोर न पड़ूँ। यह मुश्किल है, लेकिन यदि आप विश्व चैंपियन बनना चाहते हैं और खुद को साबित करना चाहते हैं, तो आपको यह करना पड़ता है।”
हम्पी के ये शब्द बताते हैं कि शीर्ष पर बने रहने के लिए किस समर्पण की आवश्यकता होती है। 2019 में पहला विश्व खिताब जीतने के दो साल बाद ही उन्होंने मातृत्व को अपनाया। बेटी अहाना के जन्म के बाद भी उन्होंने खेलना जारी रखा और 2024 में दोबारा विश्व चैंपियन बनीं। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है, खासकर तब जब आप जानते हैं कि एक महिला एथलीट के लिए इस स्तर पर वापसी करना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
खेल और जीवन का संतुलन
हम्पी हंसते हुए कहती हैं कि “लड़कियाँ लड़ाकू होती हैं।” और यह सच भी है। महिलाओं, विशेष रूप से माताओं के लिए, बहु-कार्य (multitasking) एक स्वाभाविक गुण बन जाता है। घर और करियर दोनों की जिम्मेदारियों को निभाना, खासकर एक ऐसे पेशे में जहाँ मानसिक एकाग्रता सर्वोपरि हो, अदम्य इच्छाशक्ति की मांग करता है। माँ होने का “अपराध बोध” (mom guilt) भी एक वास्तविकता है। हम्पी बताती हैं कि एक बार टूर्नामेंट के कारण उनकी फ्लाइट रद्द हो गई और वह अपनी बेटी का जन्मदिन चूक गईं। यह एक ऐसी बात है जो उनकी बेटी को अब भी याद है, और तब से हम्पी यह सुनिश्चित करती हैं कि वह बेटी के जन्मदिन पर घर पर ही रहें।
यह विरोधाभास अक्सर देखने को मिलता है: जब कोई पुरुष एथलीट टूर्नामेंट के लिए विदेश जाता है, तो शायद ही कोई पूछता है कि उसके बच्चे की देखभाल कौन कर रहा है। लेकिन एक महिला एथलीट से यह सवाल लगभग हमेशा पूछा जाता है। हम्पी जैसी खिलाड़ियों की उपलब्धियाँ इस अनदेखी चुनौती को पार करने का प्रमाण हैं।
पारिवारिक समर्थन की शक्ति
हम्पी के अनुसार, पारिवारिक समर्थन के बिना यह सब असंभव है। वह कहती हैं कि यदि उन्हें अपनी बेटी को किसी आया के भरोसे छोड़ना पड़ता, तो शायद वह अपना करियर जारी न रख पातीं। दादा-दादी या परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बच्चे को छोड़कर खिलाड़ी अधिक सहज और आत्मविश्वासी महसूस करते हैं। उनके पति का सहयोग और उनके पिता, जो उनके ट्रेनर भी हैं और आज भी एक पेशेवर की तरह अभ्यास करते हैं, उनकी सफलता के लिए आधार स्तंभ हैं।
उम्र और फिटनेस की चुनौती
30 की उम्र पार करने के बाद, हम्पी मानती हैं कि खेल में थोड़ी “सुस्ती” आ सकती है, खासकर जटिल स्थितियों की गणना में। किशोर अवस्था की तरह तुरंत प्रतिक्रिया शायद न हो। यह वह क्षेत्र है जहाँ उन्हें लगातार काम करने की आवश्यकता महसूस होती है। इसके अलावा, शारीरिक फिटनेस भी महत्वपूर्ण है। मातृत्व के बाद स्वास्थ्य संबंधी कुछ चुनौतियाँ हो सकती हैं, जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। एक चैंपियन को शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से फिट रहना पड़ता है।
प्रेरणा का स्रोत
पिछले कुछ समय से टूर्नामेंटों में अपेक्षित प्रदर्शन न कर पाने के कारण हम्पी के मन में कभी-कभी खेल छोड़ने का विचार भी आया था। लेकिन 2024 की जीत ने उन्हें फिर से प्रेरित किया और उन्हें खेल में “खुशी” वापस मिल गई। 37 साल की उम्र में भी नई चुनौतियों का सामना करना और खुद को शीर्ष पर साबित करना, कोनेरू हम्पी को सिर्फ शतरंज की रानी नहीं, बल्कि हर उस महिला के लिए एक प्रेरणा बनाता है जो अपने सपनों को पूरा करने के साथ-साथ परिवार की जिम्मेदारियाँ निभाना चाहती है।
कोनेरू हम्पी का सफर दिखाता है कि कैसे दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और परिवार के अटूट समर्थन से कोई भी बाधा पार की जा सकती है। वह भारतीय खेल इतिहास की महानतम महिला खिलाड़ियों में से एक हैं, और उनका संतुलन व सफलता हर किसी के लिए एक सशक्त संदेश है।