बॉग्दान तान्जेविच: 1999 यूरोपीयन चैंपियनशिप में इटली की जीत की अनोखी दास्तान

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बास्केटबॉल की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ आंकड़ों या ट्रॉफी से कहीं ऊपर उठकर, खेल के दर्शन को एक नई दिशा देते हैं। बॉग्दान तान्जेविच ऐसे ही एक दिग्गज कोच हैं। 1999 में, जब उन्होंने इटली की बास्केटबॉल टीम को यूरोपीयन चैंपियनशिप का स्वर्ण पदक दिलाया, तब उन्होंने सिर्फ एक टूर्नामेंट नहीं जीता था, बल्कि खेल जगत को नेतृत्व, टीम वर्क और “अहंकार पर छूट” के महत्व का एक अमूल्य सबक सिखाया था। यह कहानी सिर्फ एक खेल जीत की नहीं, बल्कि एक ऐसे कोच की है जिसने साहस, सूझबूझ और मानवीय समझ के दम पर असंभव को संभव कर दिखाया।

विवादास्पद निर्णय: जब सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को टीम से बाहर रखा गया

उस ऐतिहासिक जीत का मार्ग एक ऐसे फैसले से शुरू हुआ था जिसने पूरे बास्केटबॉल जगत में तूफान ला दिया। लीग के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी और वारेसे को अप्रत्याशित स्कुडेटो दिलाने वाले स्टार, जियानमार्को पोज़ेको (Gianmarco Pozzecco) को यूरोपीयन चैंपियनशिप टीम से बाहर कर दिया गया। यह एक ऐसा कदम था जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की थी। आप सोचिए, अपनी टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को बाहर कर देना, क्या यह पागलपन नहीं था? पर तान्जेविच के लिए यह रणनीति थी।

तान्येविच बताते हैं, “पोज़ेको मुझे बहुत पसंद था: साहसी, तेज; उसकी तकनीकी विविधता मुझे लुभाती थी। लेकिन वह ऐसा प्लेमेकर नहीं था जिसकी उस टीम को मैदान पर चीजों को नियंत्रित करने के लिए आवश्यकता थी। उसके लिए एक अलग तरह के खेल की जरूरत थी, मुझे पूरी टीम को उसकी छवि में ढालना पड़ता। और यह काम नहीं कर रहा था।” यह निर्णय उनकी टीम-प्रथम (team-first) मानसिकता का एक स्पष्ट उदाहरण था। उनका मानना था कि व्यक्तिगत प्रतिभा तभी मायने रखती है जब वह टीम की समग्र रणनीति और संतुलन में फिट बैठती हो। इस एक फैसले ने शुरुआत में टीम के मनोबल और विश्वसनीयता को भी प्रभावित किया था, जैसा कि तान्येविच स्वयं स्वीकार करते हैं, पर उन्हें अपने फैसले पर कोई खेद नहीं था।

“अहंकार पर छूट”: टीम भावना का विजयी मंत्र

तान्येविच का कोचिंग दर्शन एक सीधे और शक्तिशाली सिद्धांत पर आधारित था: खिलाड़ियों को अपने व्यक्तिगत अहंकार पर थोड़ी “छूट” देनी होगी। वे मानते थे कि 12 व्यक्तियों का एक समूह तभी एक “सिम्फनी” बन सकता है जब हर कोई अपने व्यक्तिगत गौरव से ऊपर उठकर टीम के लिए खेले।

“खिलाड़ियों से मैंने हमेशा उनके अहंकार पर थोड़ी छूट मांगी, 12 लोगों की एक सिम्फनी के लिए। माइर्स जैसे शानदार खिलाड़ी से भी मैंने रक्षात्मक खेल में मजबूत होने को कहा। और मैं सभी को विजेता महसूस कराने में कामयाब रहा।”

यह सिर्फ कहने भर की बात नहीं थी, उन्होंने इसे करके दिखाया। उन्होंने हर खिलाड़ी को उसकी भूमिका में महत्व महसूस कराया, चाहे वह स्कोरर हो या डिफेंसिव विशेषज्ञ। इसी सामूहिक भावना ने टीम को शुरुआती झटकों (क्रोएशिया और लिथुआनिया से हार) के बावजूद मजबूत होने में मदद की। क्वार्टर फाइनल से लेकर रूस, यूगोस्लाविया और फिर फाइनल में स्पेन के खिलाफ, टीम ने एकजुट होकर प्रदर्शन किया और हर बाधा को पार कर जीत हासिल की। ऐसा लग रहा था मानो टीम ने अपने सारे संदेह और बोझ पीछे छोड़ दिए हों और अब वे बस खेलने के लिए स्वतंत्र थे।

विरासत और आत्मविश्वास: यूगोस्लाविया का डर खत्म

उस जीत ने इटली की बास्केटबॉल को सिर्फ एक स्वर्ण पदक नहीं दिया, बल्कि एक नई आत्म-छवि भी प्रदान की। तान्जेविच के अनुसार, सबसे महत्वपूर्ण विरासत यह थी कि “अब यूगोस्लाविया से डरने की जरूरत नहीं थी।” उन्होंने चार साल में उस शानदार टीम के खिलाफ 9 में से 8 मैच जीते थे, जिससे टीम में जबरदस्त आत्मविश्वास पैदा हुआ था। यह मानसिक जीत किसी भी ट्रॉफी से कम नहीं थी; यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नया मानदंड स्थापित कर गई।

इंसानी रिश्ता और सुलह: पोज़ेको के साथ

एक ऐसा कोच जिसने अपने सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को टीम से बाहर रखने का साहस किया, वह बाद में उसी खिलाड़ी का सबसे करीबी दोस्त बन गया। तान्जेविच और पोज़ेको, व्यक्ति के रूप में कई मायनों में समान हैं। तान्जेविच ने पोज़ेको के पिता से दोस्ती की, और पोज़ेको को कोचिंग में आने पर सलाह भी दी: “पोज़, अब तुम्हें वह सब कुछ करना होगा जो तुम पहले सोचते थे, उसका ठीक उलटा।” और पोज़ेको खूब हँसा। यह दिखाता है कि उनके फैसले व्यावसायिक थे, व्यक्तिगत नहीं, और सच्चे रिश्ते समय के साथ हर दरार को भर देते हैं। आज, जब वे मिलते हैं, तो केवल “चुंबन और गले मिलना” होता है।

“ओमाहा बीच” और एक बौद्धिक कोच का सफर

तान्येविच का सफर एक युवा कोच के रूप में शुरू हुआ, जब 35 साल की उम्र में उन्हें कैसरटा का कोच बनाया गया। खुद उन्होंने मजाक में कहा कि लोग उन्हें देखकर सीज़र रुबिनी जैसे किसी पुराने अनुभवी कोच की उम्मीद कर रहे होंगे, पर मैं तो खिलाड़ी जैसा ही दिखता था। उन्होंने हमेशा अज्ञात खिलाड़ियों के साथ बोस्ना साराजेवो में हासिल की गई “चमत्कारिक जीत” को दोहराने का सपना देखा। इटली में भी, कैसरटा, स्टीफनेल मिलानो और ट्राएस्टे में वह इसके करीब पहुंचे। मिलानो में तो उन्हें लगा था कि एक-दो साल और मिलते तो वे चैंपियंस कप जीत जाते। वह बड़े मैचों को “ओमाहा बीच” कहते थे, यह तुलना दूसरे विश्व युद्ध की उस प्रसिद्ध लैंडिंग से थी, जहाँ दुश्मन के इलाके में उतरकर जीत हासिल करनी होती है – रणनीति, साहस और निर्णायकता, सब एक साथ।

उन्हें “बेंच का बुद्धिजीवी” माना जाता था, और वे खुद स्वीकार करते हैं कि उनका अनुभव सिर्फ कोर्ट से नहीं आता। साहित्य और अध्ययन में उनकी गहरी रुचि ने उन्हें लोगों के जीवन में झांकने, उनकी इच्छाओं, जरूरतों और डर को समझने में मदद की।

“यह दूसरों के जीवन में उतरने की बात है: यदि आप दूसरे की तरह सोचना सीख जाते हैं, उसकी इच्छाओं, जरूरतों और डर को समझ जाते हैं, तो आप उसका बोझ हल्का कर सकते हैं, उसके डर को अपने कंधों पर ले सकते हैं। जब आप इतने सारे जीवन और नियति को जानते हैं तो प्रोत्साहन देना अधिक स्वाभाविक हो जाता है। सब कुछ ईमानदारी से शुरू होता है।”

महान खिलाड़ियों का सम्मान और `जिम्मेदारी लो` का मंत्र

तान्येविच ने कई महान खिलाड़ियों को प्रशिक्षित किया, लेकिन डिनो मेनेगिन (Dino Meneghin) का नाम लेते ही उनकी आंखों में चमक आ जाती है। “तीन साल तक डिनो मेनेगिन को कोचिंग दी? इससे बड़ा गर्व और क्या हो सकता है! मेरे लिए वह शिष्टता, शिक्षा, विनम्रता और ईमानदारी के मामले में एक शानदार राष्ट्रपति हो सकते हैं।” यह उनकी खिलाड़ियों के प्रति सम्मान की भावना को दर्शाता है।

उनका एक और प्रसिद्ध मंत्र था: “मेरे पीछे मत छिपो।” वे अपने खिलाड़ियों से कहते थे कि उन्हें अंतिम दो मिनट में उनसे किसी जादू की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। “परिस्थिति को अपने हाथ में लो: या तो तुम सफल होगे या नहीं। इंतजार करने जैसा कुछ नहीं है, बस शॉट लगाओ।” वे खिलाड़ियों को “जिम्मेदारी लेने” के बोझ से मुक्त करना चाहते थे, उन्हें सहज रूप से खेलने के लिए प्रेरित करते थे। यहां तक कि उन्हें अखबार पढ़ने से भी रोकते थे, ताकि बाहरी दबाव उन पर हावी न हो – क्या यह खिलाड़ियों को बचाने का एक अनोखा तरीका नहीं था!

युवाओं पर विश्वास और वर्तमान टीम पर दृष्टि

खुद 17 साल की उम्र में पहली टीम में चुने जाने वाले तान्जेविच को युवाओं पर अटूट विश्वास था। उनका मानना था कि अगर उन्हें मौका मिला तो वे भी अच्छा कर सकते हैं। वर्तमान इटली टीम को लेकर भी वे सकारात्मक हैं, नई प्रतिभाओं को देखकर खुश हैं, हालांकि टोनट जैसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी की अनुपस्थिति उन्हें खलती है। वे नियांग और डिउफ जैसे युवा खिलाड़ियों में भविष्य देखते हैं, जो टीम को “कद” (stature) देंगे।

बॉग्दान तान्जेविच की कहानी सिर्फ एक बास्केटबॉल कोच की नहीं, बल्कि एक ऐसे नेता की है जिसने लीक से हटकर सोचने, कठिन निर्णय लेने और मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि रखने का साहस किया। उनकी जीत सिर्फ अंक तालिका में दर्ज नहीं हुई, बल्कि अनगिनत खिलाड़ियों और प्रशंसकों के दिलों में एक प्रेरणादायक गाथा के रूप में हमेशा के लिए अंकित हो गई है। यह सिखाती है कि सच्ची सफलता अक्सर सबसे अप्रत्याशित रास्तों से आती है, और टीम वर्क, ईमानदारी और निडरता ही किसी भी चुनौती का सामना करने की कुंजी है।

(यह लेख बॉग्दान तान्जेविच के इटली की 1999 यूरोपीयन बास्ketबॉल चैंपियनशिप जीत और उनके कोचिंग दर्शन पर आधारित है।)