अगर वर्ष 2022 में राजनीति को चेहरों से परिभाषित किया जाए तो आने वाले वर्षों में तीन शख्सियत सीधे तौर पर भारतीय राजनीति में बदलाव का प्रतिनिधित्व करते हैं। साल की शुरुआत में ही फरवरी महीने में उत्तर प्रदेश और पंजाब सहित पांच राज्यों में चुनाव हुए। कई विश्लेषकों का दावा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव ने एक नया रुझान दिखाया जिसके परिणामस्वरूप योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार दूसरा कार्यकाल हासिल करने में सफल रही और संभव है कि साल के अंत में गुजरात चुनावों में यही रुझान फिर से दोहराए जाएंगे। सत्ता के समर्थन में वोट से पता चलता है कि भारतीय जनता सरकार के प्रदर्शन का आकलन करने के साथ उसे इनाम दे रही थी।
अरविंद केजरीवालः राजनीति में नए विरोधाभास को उभारने में कारगर पंजाब के चुनाव ने 2022 में एक प्रमुख चेहरे को उभारने में मदद दी और वह चेहरा दिल्ली के मुख्यमंत्री, आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल का था जो असाधारण तरीके से और मौजूदा राजनीतिक क्रम में एक बदलाव के प्रतीक बनकर उभरे। चौतरफा संकट का सामना कर रहे इस राज्य में कमोबेश नई और एक कम मशहूर पार्टी को सत्ता में लाने के लिए समर्थन मिला। इस तरह पंजाब ने दुनिया को स्पष्ट संदेश दिया कि यह कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) जैसी ‘स्थापित’ पार्टी की राजनीति से ऊब चुकी है।
पंजाब में मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं, मुफ्त शिक्षा, महिलाओं के नेतृत्व वाले परिवारों के लिए बेरोजगारी भत्ता और ‘दिल्ली मॉडल’ वाली सरकार के लिए आकर्षक देखा गया और इस बारे में बहुत ज्यादा नहीं सोचा गया कि इन योजनाओं के लिए धन की व्यवस्था कैसे की जाएगी। केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से भाजपा द्वारा गढ़े गए ‘सरकार के कम हस्तक्षेप वाले प्रशासन की धारणा’ को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि सरकार और शासन को अलग नहीं किया जा सकता है।
आम आदमी पार्टी (आप) ने गुजरात में इस साल के आखिर में 13 प्रतिशत वोट पाकर और पांच विधायकों के साथ अच्छा प्रदर्शन किया। यह राज्य की पारंपरिक द्विध्रुवीय राजनीति में किसी तीसरी पार्टी के लिए मिला अब तक का सर्वाधिक वोट होगा। इससे कांग्रेस और भाजपा को समान रूप से चिंतित होना चाहिए क्योंकि केजरीवाल की राजनीति का नयापन, राजनीतिक खतरा बन सकता है।
द्रौपदी मुर्मू: आदिवासी पहचान की नई परिभाषा
वर्ष 2022 में पांच राज्यों के चुनावों के बाद भारत के राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। पहली महिला आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति पद के चुनाव ने एक ऐसे समुदाय पर भाजपा का प्रभाव और जमा दिया जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के काम और उसकी ताकत को देखा था, लेकिन बड़े पैमाने पर अब तक कांग्रेस को ही वोट दिया था।
मुर्मू के चुनाव के कई मायने हैं। आदिवासी पहचान की एक नई परिभाषा स्थापित हुई क्योंकि मुर्मू ने अपना आदिवासी नाम बदलते हुए हिंदू धर्म से जुड़े हुए संस्कृतनिष्ठ नाम को अपना लिया और इसलिए भी क्योंकि राज्यपाल के रूप में झारखंड में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का विरोध उद्योग के लिए वन भूमि का इस्तेमाल करने के लिए किया।
उनके ये कदम न केवल उनकी अपनी आदिवासी पहचान को दर्शाते हैं बल्कि समुदाय के अधिकारों के बारे में भाजपा की समझ का भी अंदाजा लगता है। भारत में पश्चिमी देश के एक राजदूत ने कहा, ‘दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जहां भारत की तरह समारोह होता है। जब मैंने पहली बार राष्ट्रपति मुर्मू को देखा तो मेरे लिए यह भारत के रूपक के तौर पर नजर आया।
राष्ट्रपति भवन की शानदार रोशनी और शीशे वाले झूमरों से सजे इस भवन में आयोजित जश्न के बीच सफेद साड़ी में एक सामान्य महिला विशाल मखमली कुर्सी पर बैठी हुईं वहां की भव्यता से बेफिक्र और अपने पूर्वजों के हजारों वर्षों के ज्ञान से उत्साहित होकर पूरी कार्यवाही देख रही थीं। यह बेहद प्रभावशाली दृश्य था।
मुर्मू की नियुक्ति का चुनावी परिणाम 2023 में देखा जाएगा जब आदिवासी आबादी वाले अहम राज्यों जैसे कि मध्य प्रदेश (21 प्रतिशत), राजस्थान (13 प्रतिशत) और नगालैंड व मेघालय (86 प्रतिशत) जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में चुनाव होंगे।
मल्लिकार्जुन खरगे: नेतृत्व परिवर्तन पर्याप्त नहीं?
वर्ष 2022 में एक और चेहरे का उभार देखा गया लेकिन यह चेहरा विपक्ष का था। मल्लिकार्जुन खरगे को कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने सोनिया गांधी की जगह ली, जिनका राजनीति में प्रवेश 29 दिसंबर, 1997 को हुआ था। सोनिया की शुरुआत उनके आधिकारिक आवास, 10, जनपथ से अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) मुख्यालय तक भेजे गए नोट से हुई जिसे तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को दिया जाना था।
इस संक्षिप्त पत्र में 1998 की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए प्रचार करने की सोनिया गांधी की इच्छा का जिक्र था। उस वक्त से ही कांग्रेस में शीर्ष पद नेहरू-गांधी परिवार के एक सदस्य के पास है, जिसकी वजह से यह तंज कसा जाता है कि कांग्रेस पार्टी एक पारिवारिक पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं है। जैसे-जैसे पार्टी कई चुनाव हारती गई और उसे वोट हिस्सेदारी घटने का भी सामना करना पड़ा जिसकी वजह से कांग्रेसियों का रोष बढ़ने लगा और पार्टी के अस्तित्व के खतरे के डर से, ‘पूर्णकालिक अध्यक्ष’ के लिए दबाव बढ़ गया।
खरगे को अध्यक्ष पद के लिए परिवार की पसंद के रूप में देखा गया था, और उन्हें चुनाव में उतारा गया। उन्होंने 80 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल कर पार्टी अध्यक्ष का पद पाने में सफलता पाई। कांग्रेसी एक करिश्माई, वाक्पटु नेता चाहते थे जो बोलने में नरेंद्र मोदी की बराबरी कर सके। हालांकि खरगे के लिए उस पैमाने से मेल खाना मुश्किल हो सकता है। पार्टी अध्यक्ष के रूप में एक ऐसा व्यक्ति भी चाहती थी जो इसके लिए उपलब्ध हो और इसका अपना आदमी हो, न कि गांधी परिवार और उसके आसपास के समूह का एक प्रतिनिधि भर हो।
इसमें उन्होंने अब तक निराशा ही दी है। उनके सचिवालय ने यह निर्णय लिया था कि वह कार्यकर्ताओं से मिलने के लिए सप्ताह में कम से कम एक बार कांग्रेस कार्यालय में बैठेंगे जिस पर अभी तक अमल नहीं किया गया है। इससे पहले उन्होंने एक व्यक्ति, एक पद के सिद्धांत का सम्मान करते हुए राज्यसभा में विपक्ष के नेता के पद से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन अब उन्होंने दोनों पदों पर बने रहने का विकल्प चुना है।
जब कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव जीता तब पार्टी के सांसद राहुल गांधी ने राज्य के 40 विधायकों को ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में शामिल होने के लिए कहा न कि पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने ऐसा कहा। लोकसभा चुनाव अठारह महीने दूर हैं, ऐसे में कांग्रेस में किसके पास रणनीतिक फैसले लेने का अधिकार होगा यह सब स्पष्ट नहीं है जैसे कि भाजपा के एक उम्मीदवार के खिलाफ कांग्रेस के एक उम्मीदवार को खड़ा करना है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए राज्यों में कितना कुछ छोड़ना है आदि।
कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री ने कहा, ‘हमें यह कहना चाहिए कि हम भाजपा को हराने के लिए लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। हम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बारे में बाद में फैसला कर सकते हैं। लेकिन हम संभवत: यही कहेंगे कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाएं और देश को सही दिशा में ले जाएं।’ भारत में एक नए संसद भवन का अनावरण होगा और इसके अलावा देश में जी 20 और शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठकों की मेजबानी की जाएगी और 26 जनवरी, 2023 को मिस्र के राष्ट्रपति का भी स्वागत किया जाएगा। लेकिन समुदायों के बीच बढ़ते आंतरिक तनाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। आने वाला साल ऐसा होगा जब ‘सबका विश्वास’ की पूरी परीक्षा होगी।