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सियासी हलचल |
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आदिति फडणीस / June 29, 2022 |
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शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने अपना अंतिम सार्वजनिक भाषण 2012 में विजयादशमी के अवसर पर दिया था। वह 86 वर्ष के हो चुके थे और शरीर साथ छोड़ रहा था। उन्होंने वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये अपना संबोधन दिया था। उनके भाषण के दौरान शिवसेना के कार्यकर्ताओं की आंखों से आंसू बह रहे थे और इसी दौरान बालासाहेब ने वादा किया था कि वह कभी अपने बेटे उद्धव या अपने पोते आदित्य को पार्टी पर नहीं थोपेंगे। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि अगर उन्हें कभी लगता है कि उद्धव या आदित्य उन पर बोझ बन रहे हैं तो वे शिवसेना छोड़ सकते हैं। उन्होंने अपने भाषण का अंत यह कहते हुए किया: ‘आपने मेरा ध्यान रखा। उद्धव और आदित्य का भी ध्यान रखिए। निष्ठा को महत्व दीजिए।’
इस तरह शिवसेना में उत्तराधिकार का मसला हल हुआ था। बालासाहेब उद्धव को प्यार से ‘डिंगा’ कहकर बुलाते थे। उद्धव के सहपाठी उन्हें एक विनम्र, शर्मीले और ऐसे बालक के रूप में याद करते हैं जो किसी तरह की प्रतिस्पर्धा में नहीं रहता था। राजनीति ने सब बदल दिया। बालासाहेब की उम्र बढ़ने के साथ उद्धव को अपना विज्ञापन कारोबार समेटना पड़ा। वह शिवसेना की पत्रिका सामना में आ गए। उन्हें शिवसेना के मामलों के प्रबंधन में कूदना पड़ा। इस दौरान एक तरह से पार्टी कार्यकर्ताओं ने उन्हें बढ़ावा भी दिया।
ऐसे में जो लोग बालासाहेब के साथ थे और खुद को बालासाहेब के शिवसैनिक मानते थे, वे दूर होने लगे। नारायण राणे ऐसे ही एक नेता थे। अपनी किताब में वह लिखते हैं कि बालासाहेब के प्रति उनका समर्पण ऐसा था कि उस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता था लेकिन उद्धव के लिए वही सम्मान पैदा करना कठिन था। जब रास्ते एकदम जुदा होने वाले थे तब बालासाहेब उद्धव के अल्टीमेटम के सामने झुक गए थे। उद्धव ने कहा था कि अगर राणे पार्टी में वापस आते हैं तो रश्मि और वह मातोश्री छोड़ देंगे। यह घटना बालासाहेब के साथ राणे की आखिरी मुलाकात में घटी थी जहां उद्धव भी थे। वह अपनी किताब में आगे लिखते हैं, ‘मैं 2005 से ही अपने रुख पर कायम हूं कि उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना का कोई भविष्य नहीं है। वह बहुत अच्छे इंसान हो सकते हैं लेकिन वह बहुत बुरे नेता हैं।’ चचेरे भाई राज के साथ अलगाव भी उतना ही मुश्किल था। उस समय अलग तरह की चुनौतियां पैदा हुई थीं।
पार्टी में उद्धव के उभार के साथ ही उनकी एक मंडली भी तैयार हुई। आज उसी के खिलाफ इतनी नाराजगी है। इनमें उनके निजी सचिव मिलिंद नार्वेकर शामिल हैं जिन्होंने सूरत में एकनाथ शिंदे के साथ मध्यस्थता का प्रयास किया।
उद्धव पर किताब लिखने वाले राधेश्याम जाधव कहते हैं, ‘नार्वेकर तीक्ष्ण स्मृति वाले दुबले पतले व्यक्ति हैं। वह हमेशा अपने साथ एक लाइसेंसी पिस्तौल रखते, ठाकरे के परिवार में उनकी इतनी मजबूत घुसपैठ थी कि बहुत कम लोग उनकी अवज्ञा करने की हिम्मत कर पाते थे। मलाड के रहने वाले शिवसैनिक थे और उद्धव से उनकी मुलाकात एक विधायक गजानन कीर्तिकर ने कराई थी।’
संजय राउत, अनिल देसाई, अनिल परब (फिलहाल प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में) और नीलम गोहरे भी इस मंडली के सदस्य थे।
2014 के आम चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के उभार को लेकर शिवसेना की असहजता साफ नजर आ रही थी। सामना में अपने एक साक्षात्कार में बालासाहेब ने कहा था, ‘इस समय केवल ही व्यक्ति बुद्धिमान और समझदार है और वह हैं – सुषमा स्वराज।’ उन्होंने यह भी कहा, ‘मैं कई बार यह कह चुका हूं कि वह प्रधानमंत्री के पद के लिए बहुत अच्छा चयन होंगी। वह योग्य और बुद्धिमान महिला हैं। वह बहुत अच्छा काम करेंगी।’
जाहिर है मोदी और उनके समर्थकों ने इस बात पर गौर किया था। बालासाहेब के निधन के बाद भी उद्धव ने बतौर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी खुलकर मोदी का समर्थन नहीं किया। उन्होंने कहा कि वह उनके ‘अच्छे मित्र’ हैं और गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने ‘अच्छा काम’ किया है। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं रही। 2014 में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार करते हुए अमित शाह ने कहा था, ‘हमने एक चूहे को शेर बना दिया और अब वही हमें डराने की कोशिश कर रहा है। हमें इन चूहों को इनकी सही जगह दिखानी होगी।’यह सही है कि उद्धव हर समय सेना को नये सिरे से परिभाषित करने की कोशिश करते दिखे। दुनिया बालासाहेब के शिवसैनिक को तो जानती थी लेकिन उद्धव का शिवसैनिक कौन था? वह महाराष्ट्र के किस इलाके से आता था? वह किस बात में विश्वास करता था? वह कस्बे से था या गांव से या दोनों से? सबसे महत्त्वपूर्ण बात वह नितिन गडकरी या देवेंद्र फडणवीस के बजाय उद्धव ठाकरे में यकीन क्यों करता? उद्धव शिवसेना को राजनीति और गठबंधन की नयी हकीकतों से परिचित कराने की कोशिश कर रहे थे और इस बीच कुछ पक रहा था।
महा विकास आघाडी का गठन शिवसेना में आ रहे बदलाव का उदाहरण था। उद्धव शिवसेना को महाराष्ट्र के सभी लोगों के लिए तैयार करना चाहते थे। लेकिन पारंपरिक शिवसैनिक इस बात से नाखुश हो गए। उदाहरण के लिए जब शिवसेना के नारे ‘जय भवानी, जय शिवाजी’ में ‘जय भीम’ जोड़ा गया तो काफी हलचल हुई।
महाराष्ट्र की राजनीति में सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए शिवसेना राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की साझेदार नजर आने लगी। आदित्य ठाकरे के उभार ने भी समस्या पैदा की। आदित्य शिवसेना को विश्वविद्यालय परिसरों में ले जाना चाहते थे जहां भाजपा की युवा शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का बोलबाला था। सन 2017 में शिवसेना ने मुंबई विश्वविद्यालय सीनेट की सभी 10 सीटें जीत लीं। उसने विद्यार्थी परिषद को हराया। इस तरह पार्टी ने पुराने साझेदार को चुनौती देनी शुरू की।
इस बात में संदेह नहीं कि उद्धव ने पार्टी और अपने बीच के रिश्ते की अनदेखी की। लेकिन अब उन्हें संगठन की लगाम वापस अपने हाथ में लेनी है। वह ऐसा कैसे करेंगे यह देखना दिलचस्प होगा।