एक बहुप्रयोजन वाले विधेयक की मदद से छोटे अपराधों की आपराधिकता समाप्त करने तथा 19 मंत्रालयों के तहत आने वाले 42 अधिनियमों के 183 प्रावधान संशोधित करने को कारोबारी सुगमता का माहौल सुधारने वाले तथा न्यायिक व्यवस्था की समस्याएं कम करने वाले उपाय के रूप में पेश किया जा रहा है। यह मोदी सरकार के 2014 से चले आ रहे कदमों के अनुरूप ही है जिनके तहत कंपनी अधिनियम 2013 की व्यापक समीक्षा भी की गई थी और ऐसे मामूली अपराधों को चिह्नित किया गया था जो आपराधिक जवाबदेही वाले हैं। इस कवायद ने अपराध की प्रकृति को बदलकर या तो नागरिक चूक में बदल दिया या फिर कतिपय अपराधों को पूरी तरह अनापराधिक कर दिया गया। कुल मिलाकर दंडात्मक प्रावधानों को 134 से घटाकर 124 कर दिया गया तथा इसके लाभ भी हमें जल्दी ही देखने को मिलने लगे और 1,000 से अधिक देनदारी में चूक के मामलों का निर्णय बिना अदालतों की शरण में गए ही हो गया।
मामलों की आपराधिकता समाप्त करने के ताजा प्रस्ताव को जन विश्वास विधेयक का नाम दिया गया है और सरकार इसके माध्यम से ढेर सारे कानूनों में अपराधों को समाप्त करना चाहती है या उन्हें नागरिक चूक में परिवर्तित करना चाहती है। उदाहरण के लिए विधेयक का प्रस्ताव है कि इंडिया पोस्ट ऑफिस ऐक्ट, 1898 के तहत डाक से बिना समुचित भुगतान के वस्तुएं भेजने पर दो वर्ष की कैद की सजा को समाप्त किया जाए। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ताजा विधेयक जिसे एक संसदीय समिति के समक्ष पेश किया गया है, उसमें आईटी ऐक्ट की धारा 66ए को भी समाप्त करने का प्रस्ताव है।
इस विवादास्पद धारा के तहत किसी कंप्यूटर या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल करते हुए गलत और आक्रामक सूचना भेजने वाले व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है। इस प्रावधान ने प्रवर्तन एजेंसियों को असीमित मनमाने अधिकार दे दिए और 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दे दिया था। लेकिन कई राज्यों में पुलिस अभी भी इस धारा को आधार बनाकर लोगों को गिरफ्तार करती रही और बाद में सर्वोच्च न्यायालय को राज्यों और उनके पुलिस बलों को यह निर्देश देना पड़ा कि वे इस अधिनियम के तहत गिरफ्तारियां करना बंद करें तथा सोशल मीडिया पर लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित न करें। यही वजह है कि इस प्रावधान को कानून की किताबों से खासतौर पर हटा देने की तत्काल आवश्यकता है।
हालांकि मामूली अपराधों की आपराधिकता समाप्त करने का सामान्य सिद्धांत निरपवाद है लेकिन कारोबारी सुगमता में सुधार के उत्साह को जनहित के साथ संतुलित करने की भी जरूरत है। पर्यावरण अधिनियम के तहत जिन गतिविधियों का अपराधीकरण समाप्त करने का प्रस्ताव संशोधन में रखा गया है वह भी एक उदाहरण पेश करता है। इसमें एक खास स्तर से अधिक प्रदूषण करना, खतरनाक तत्त्वों से बिना समुचित सुरक्षा उपायों के निपटना और केंद्र सरकार को अपराधों की जांच करने की इजाजत न देना जैसी बातें शामिल हैं।
इन सभी के लिए पांच वर्ष तक की कैद, एक लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। जबकि इनके निरंतर उल्लंघन पर 5,000 रुपये रोजाना के जुर्माने की व्यवस्था है। मसौदा संशोधन विधेयक कैद की सजा समाप्त करने की बात कही गई है लेकिन पांच लाख रुपये से पांच करोड़ रुपये तक के जुर्माने की व्यवस्था को बरकरार रखा गया है। अनुपालन का बार-बार उल्लंघन करने वालों के लिए रोजाना जुर्माने की व्यवस्था भी जारी है। अगर जुर्माना चुकाने में विफलता हाथ लगती है तो 10 करोड़ रुपये के जुर्माने या तीन वर्ष के कारावास अथवा दोनों की व्यवस्था है।
भारतीय उद्योगों के पर्यावरण कानूनों के कमजोर अनुपालन को देखते हुए उनकी आपराधिकता समाप्त करना और अपेक्षाकृत हल्के जुर्माने की व्यवस्था से देश के प्राकृतिक संसाधनों की हालत और बिगड़ सकती है। इसके अलावा केंद्र और राज्य के स्तर पर यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि उनकी प्रवर्तन एजेंसियां इन संशोधनों से भलीभांति अवगत हों तथा उन्हें यह भी बताया जाए कि इन कानूनों की भावना का पालन कितना अहम है। वस्तु एवं सेवा कर के तहत कर निर्धारितियों को बड़ी तादाद में नोटिस देना भी एक उदाहरण है। ये मसले भी कारोबारी माहौल को उतना ही प्रभावित करते हैं जितना कि ये पुराने कानून।
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